कर्म और भाग्य की लड़ाई|Karm aur bhagya ki ladai episode 4
![]() |
रवि सर और मोना की शादी की एक दृश्य |
रवि सर और उनके पुरानी प्रेमिका से शादी।
कहते हैं, इंसान अपना भाग्य खुद लिखता है... लेकिन क्या वाकई?
या फिर भाग्य ही इंसान की राहें तय करता है?
यह कहानी है चितरंजन दास की...
एक ऐसा नौजवान, जिसने गरीबी से लड़ने का संकल्प लिया,
अपनों के लिए सबकुछ छोड़ दिया...
लेकिन क्या वह अपने भाग्य को बदल पाया?"
"यह कहानी काल्पनिक है, लेकिन समाज की सच्चाइयों से प्रेरित।
लेखक: केदार नाथ भारतीय"
कर्म और भाग्य की लड़ाई| चितरंजन दास की संघर्ष गाथा भाग - 4
पिछले भाग में आपने देखा कि रवि सर, जो चितरंजन दास को पुत्र समान स्नेह देते हैं, अब भी अपने अतीत की अधूरी प्रेम कहानी के साथ जी रहे हैं। वर्षों शहर में बिताने के बाद, चितरंजन गांव लौटने का निर्णय लेते हैं। पर इस बार उनका उद्देश्य केवल वापसी नहीं, बल्कि एक अधूरी कहानी को मुकम्मल अंजाम देना है — उन्होंने ठान लिया है कि वे रवि सर का विवाह उनकी पुरानी प्रेमिका से कराकर, उन्हें वह सुख लौटाएंगे जिसे समय ने उनसे छीन लिया था। अब आगे ..... !
चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार की बल बुद्धि विद्या और ज्ञान से भरी हुई कर्मठता का तेज, अब चतुर्दिक बिखर चुका था, जिसे देखकर, उसकी पूर्व काल की भाग्य परिधि, छुईमुई की भांति लजाती शर्माती, स्वयं में दिनों दिन सिकुड़ती चली गई। चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार के सात्विक कर्म फल के आगे, अपना मुंह छुपा छुपा कर वह अंदर ही अंदर घुट घुट कर करुण क्रंदन कर रही थी। वह जोर-जोर से हांफे जा रही थी, धीरे-धीरे समय के प्रवाह ने उसे वेदम बना डाला। वह निर्धनता की भाग्य रेखा, अपने ऊपरी कवच की जर्जरता को निहार निहार कर मरी जा रही थी, चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार की विधि भाग्य, जो उसके जन्म भूमि और कर्म भूमि से जुड़ी थी, उस समय वह बड़ी बातूनी और अहंकारी थी। उदंडी थी ओछी थी, निर्बल, असहाय एवं नकारात्मकता के अवगुणों से भरी पड़ी थी। वह चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार के उच्च विचार धारणाओं का बड़ी तेजी के साथ खंडन कर देती थी, किंतु अब वैसा नहीं था, अब तो नेगेटिव सोचो का पहाड़, भाग्य कवच से ऐसे हट गया जैसे की ठीक समय आने पर सर्प के देह से उसका केचुल हट जाता है।
अनिष्टकारी आवरण के हट जाने से जिस भाग्य का उदय हुआ वह पूरी तरह से कुंदन के समान, प्राची से उगता हुआ उषा काल सम सूरज था। आज जब चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार के सात्विक कर्म फल को प्रथम बार भाग्य रूपी सूर्य ने देखा तो वह, स्वयं में गौरवान्वित हो बैठा। आज तारीख पांच, दिन रविवार, रात्रि के 9:20 मिनट, रवि सर और मोना मैडम के बीच पवित्र परिणय सूत्र की पवित्र स्थापना थी। वह झालर मोतियों से सजा हुआ पंडाल,अति वैभवशाली सुंदर और सर्वश्रेष्ठ लग रहा था, जिसके चारों ओर अलौकिक आभामंडल लिए, दूर-दूर तक, ब्योममंडल की अनंत तारावलियों की तरह, अपने पूर्ण निखार से जगमगा रहा था। स्त्री पुरुष और बच्चे,आपस में घुल मिलकर खुब चहक रहे थे। वेद विशारद भट्टाचार्य, अपनी अपनी पोथिया लिए वेद ऋचाओं का पाठ कर रहे थे, नाउन कलसा के निकट बैठकर, अपने गोल मटोल नैनो से, चतुर्दिक इत उत निहार रही थी। औरतें मंगलाचरण का गान गा रही थी, कि तभी चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार को, रवि सर की क्वालिस गाड़ी दिखाई पड़ी। वे वहां से तत्क्षण भागते हुए रवि सर के निकट आकर बोले।
अरे सर आप, आप आ गए, यहां हम आपका ही इंतजार कर रहे थे।
रवि सर गाड़ी से नीचे उतरते हुए चारों तरफ अपनी दृष्टि घुमा कर बोले। मेरा इंतजार, आखिर क्यों, वैसे यहां हो क्या रहा है, इतना बड़ा पंडाल, इतने सारे लोग, मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आ रहा, आखिर बात क्या हो सकती है विजय।
बस सर आप देखते जाइए, वैसे हम आपको बता दें कि यहां मेरे भगवान मेरे प्रभु श्री राम और माता सीता की शादी होने वाली है।
इससे पहले की रवि सर कुछ कहते, वह सर को लिवाकर सीधे श्रृंगार कक्ष में पहुंचा, जहां पूर्ण एकांत था।
विजय बेटे, मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा, आखिर तुम यहां पर मुझे क्यों लाए हो, यहां चारों तरफ से स्वर्ग जैसे अनुभूति हो रही है। रवि सर, चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार को आश्चर्यजनक दृष्टि से निहारते हुए बोले।
सर , मुझे क्षमा कीजिएगा, वह मोना मैडम जो अपनी ही फैक्ट्री की सेक्रेटरी है, उनकी शादी हमने आपसे मान ली है, सर इंकार मत कीजिएगा प्लीज, हम अपने दुस्साहस के क्षमा प्रार्थी हैं।
अभी कुछ दिन पहले हमने आपसे वचन भी लिया था कि यदि जीवन में, मैं आपको कुछ देना चाहूंगा, तो आप उसे जरूर एक्सेप्ट करेंगे। अन्यथा मेरा दिल टूट जाएगा। और आपने हमें पूर्ण वचन भी दिया था।
कि हम तुम्हारे गिफ्ट को स्वीकार करेंगे। वह गिफ्ट तुम्हारी तरफ से चाहे जैसा भी हो। इसलिए सर प्लीज, आप मेरी पसंद मत ठुकराइए। म, मैं आपका पैर पड़ता हूं। यदि आपने यह शादी ठुकरा दिया तो हम समझेंगे कि, आपने हमें यम दंड उठाकर हमारी हत्या कर दी। सर प्लीज, इस शादी को क्षण मात्र के लिए भी मत इनकारे। मैं जीवन भर आपका आभारी रहूंगा। ऋणी रहूंगा, आपका कृतज्ञ करूंगा, सर प्लीज।
रवि सर से प्रार्थना करते-करते, चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार के दोनों नेत्र, सजल से हो उठे।
रवि सर ने चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार को अपने सीने से लगाते हुए भावुक होकर बोले।
पगले, यह बात मुझे पहले क्यों नहीं बताया।
सर, मैं आपको सरप्राइस देना चाहता था।
ओ माय गॉड, तुम्हारा सरप्राइज तो मेरे लिए बड़ा ही अद्भुत और सर्वश्रेष्ठ है, वैसे बेटे तुम दुनिया में मेरे लिए किसी युग पुरुष से कम नहीं हो, तुम जैसे बच्चों को सौभाग्यशाली लोग ही प्राप्त कर सकते हैं। जैसे कि हमने तुम्हें प्राप्त किया, यह मेरा सौभाग्य था। रवि सर ने चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार को अपनी भर्राई हुई आवाज में उसके दोनों गालों को, अपनी हथेलियां में भरते हुए बोले।
विजय! मेरे बेटे, मेरे भाई, तुम कोई साधारण मनुष्य नहीं हो सकते, तुम कोई दिव्य आत्मा हो सकते हो, कोई दिव्य पुंज हो सकते हो। या फिर कोई विशाल हृदय वाला परोपकारी ।
जब से तुम मुझे मिले हो तब से लेकर आज तक, मुझे खुशियां ही खुशियां प्राप्त हुई है। मेरा उद्योग चल निकला, मेरे जीवन का सारा तनाव दूर हो गया। और तो और, मुझ जैसे बूढ़े की, अब तुम शादी भी कराना चाह रहे हो। यह कितनी दुर्लभता से भरा हुआ आश्चर्य का विषय है। भला इस मौलिकता भरे सांसारिक परिवेश में, कोई पुत्र अपने बूढ़े पिता की शादी रचाता है। और वह भी, जिस पिता ने सदियों से जिस लड़की को चाहा हो, जिसे वह दिन-रात मन ही मन बेशुमार प्यार किया हो। उसी से शादी, यह कितने आश्चर्य की बात है । उस पिता के लिए कितने सौभाग्य की बात है। इसलिए विजय बेटे, तुम कोई साधारण मनुष्य नहीं हो सकते। तुम कोई दिव्य आत्मा, या पुण्य आत्मा हो सकते हो। या फिर विश्वात्मा हो सकते हो। अरे जो बिछड़ी हुई दो आत्माओं का मिलन करा दे। जो परिणय सूत्र के बंधन में उन्हें बांधकर, सात जन्मों तक एक साथ रहने की शपथ दिला दे, वही तो विश्वात्मा है। अतः विजय बेटे, यह शादी अब मुझे सहर्ष स्वीकार है। जैसे ही रवि सर के मुख से यह वाक्य निकला। चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार का दिल बल्लियों उछल सा पड़ा। अचानक वह रवि सर के सीने से लिपटकर, और फिर उनसे अलग होकर, खुशियों में किसी बच्चे की तरह नाचने गाने लगा।
अंततोगत्वा, रवि सर की शादी बड़े ही धूमधाम के साथ संपन्न हुई। वहां अति व्यस्तता के चलते देर रात दुल्हन की भी विदाई हुई थी। आज, दुल्हन के लिबास में मोना बहुत ही खूबसूरत लग रही थी। वह लाल जोड़े में स्वर्ग लोक की अप्सराओं में, उर्वशी या रंभा से कम नहीं थी। मकान के जिस कक्ष में इस नवविवाहित जोड़े का आगमन होना था, या फिर प्रथम परिणय रैन मिलन का महा उत्सव सुहाग कक्ष था। उसे सजाने संवारने के लिए उन्हीं के क्षेत्र की एक मनोरमा नाम की मालिनी आई थी। जो अति कर्तव्य निष्ठ एवं कला प्रेमी थी। उसे स्वेच्छा से इस कार्य के लिए सौंप दिया गया था। जिसे वह बड़े ही कम समय में संपन्न करके खाली भी हो गई थी। अब वह वहां बैठकर, अपने हाथों से सजाई हुई कलाकृति को देख देख कर मंत्र मुग्ध सी होती जा रही थी। साथ ही साथ उन कमियों को भी ढूंढ रही थी। जिसे वह सुधार सके। तभी पलक झपकते ही उसे बाहर के शोरगुल सुनाई पड़े, दुल्हन आ गई दुल्हन आ गई, दुल्हन आ गई। वह बिना समय गवाएं, तत्क्षण झरोखे से जैसे ही दुल्हन की सजी हुई गाड़ी दरवाजे के निकट देखी, वह खुशियों से उछलती हुई तुरंत कक्ष के बाहर होती हुई दुल्हन के गाड़ी के एकदम निकट आ गई। जहां वह औरतों और बच्चों की विशेष भीड़े जमा थी । औरतें मंगलाचरण गीत गाए जा रही थी । मालिनी के साथ नाउन और कुछ महिलाएं दुल्हन को उस कमरे में ले गई।
जहां पहले से ही मालिनी ने उसे पूरी तरह से सजाया सँवराया था। वहां कुछ समय बिताने के बाद नाउन और मालिनी सहित सारी औरतें, कमरे के बाहर होती चली गई। अब वहां अकेली दुल्हन के सिवा कोई नहीं था । आज दुल्हन बनी मोना अपने सौभाग्य पर फूले नहीं समा रही थी। वह अपनी तेज धार तीक्ष्ण कजरारी आम्र फाकों जैसी बिल्लौरी नैनो से, इधर-उधर चकर पकर, चारों तरफ, आश्चर्य भरी दृष्टि से निहारे जा रही थी । उसने मन ही मन भगवान को धन्यवाद किया कि हे प्रभु! मेरे मान सम्मान और स्वाभिमान की रक्षा सदा ही करते रहना, तथा मेरे प्राण प्रिय पति एवं उनके जीवन को दीर्घकालिक तथा निरोगी बनाकर, मुझ अभागिन अनाथ को सुहागिन बनाए रखना। मुझसे जो कुछ भी भूल चूक हुई हो उसे क्षमा कर देना। और मेरे कुल वैभव की प्रतिष्ठा को सदा ही समृद्धिशाली और सुखमय बनाए रखना। वह यही सब विनीत भाव में भगवान से प्रार्थना कर ही रही थी। कि तभी अचानक उसका ध्यान मालिनी की उस कलाकृति के ऊपर जाकर केंद्रित हो गया। जहां सुहाग सेज के चारों तरफ, अजीब प्रकार की शिल्पी उकेरी गई थी। वह अति विशिष्ट मेधा को देखते ही आश्चर्यचकित रह गई। उसके मुंह से बरबस ही यह वाक्य निकल पड़े, हे भगवान !
गेंदा, गुलाब, जूही और चंपा, चमेली के पुष्पों को, भला कौन इतने जतन से, इतनी सुघराई से सजाया होगा । सुहाग सेज के चारों तरफ एक एक पुष्प जैसे की अति चंचल मन से हंस-हंसकर उन्हें स्थापित करके हंसा दिया गया हो, सारा कमरा पुष्प वादियों से
महक रहा था ।
देखते ही देखते मोना मेम का तन मन रोमांचित हो उठा। वास्तव में, आज यह सुहाग कक्ष, इंद्रलोक के इंद्र निलय से कम नहीं था। तभी उसकी दृष्टि उस मखमली बिस्तर पर जाकर पड़ी, जिसे देखकर वह झूम सी गई। और चहक सी उठी । उन्हें ऐसा लग रहा था, जैसे की वह बिस्तर उनका आलिंगन करना चाहता हो। वह अपने मखमली बाहुंपास में उन्हें कसकर दबोचना चाहता हो।
और जीवन में कभी भी उनका साथ न छोड़ने की शपथ लेना चाहता हो । मोना अपने भाग्य पर इठलाती इतराती,और मंद मंद मुस्कुराती हुई। अपने उन दोनों हाथों की कलाइयों में पहनी, स्वर्ण कंगनों को निहारने लगी थी। अचानक उसको एक गहरी जम्हाई आई । जम्हाई लेते समय जिस कोण में, वह अधर सुर्ख गुलाबी मुंह खुला था। उसके ठीक केंद्र बिंदु में, जो विशेष गहराई बनती है, उसे गुलाब पंखुड़ियां का केंद्र बिंदु, कह लेना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगा। वह अपनी व्यवस्थित जीवन से इतनी आमोद प्रमोद कुंड में डूब गई, कि उसे स्वयं की सुधिया ही ना रही। दुल्हन बनी मोना, शर्माती सकुचाती स्वयं में लाजवंती बनी। वहीं बिस्तर के एक किनारे सिकुड़ कर बैठ गई। अब वह अपने सपनों के राजकुमार, प्रिय, प्रियतम, प्रियवर रवि सर को एक दीर्घ सांस लेते हुए बेसब्री से इंतजार करने लगी। इधर रवि सर का ड्राइंग हाल, कुछ मेहमानों से और कुछ यार दोस्तों से भरा पड़ा था। जिसकी देखरेख में, चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार पूरी तल्लीनता के साथ खड़े थे। मिलने वालों से उन्हें कुछ न कुछ शुभकामनाओं सहित रंग बिरंगे गिफ्ट भी मिलते जा रहे थे। वे संकोच बस किसी को मना भी नहीं कर पा रहे थे।
रवि सर को वह दृश्य बार-बार याद आ रहा था, जब वे दुल्हन बनी मोना के गले में वरमाला पहनाए थे। और उधर दुल्हन भी खुशी-खुशी रवि सर के गले में वरमाला पहनाई थी। तब सारा प्रांगण तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा था। ऐसी गूंज हुई कि दूर-दूर तक उसका स्वर भेदन होता ही रहा। उसी क्षण रवि सर को यह ज्ञात हुआ कि उन्हें समाज में लोग कितना मानते हैं कितना जानते हैं उन्हें। तभी चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार अपनी मोबाइल में समय देखकर चौंक पड़े।
ओ माय गॉड, यह तो रात्रि के 12:00 बजने को आए हैं। वे तत्क्षण अनुरोध की मुद्रा में आए हुए, सभी आगंतुकों के सामने, अपने दोनों हाथ उठा दिये ।
हम आप सभी लोगों से यह आग्रह करते हैं, कि इस समय ठीक 12:00 बजने को आए हैं। अतः अब हमें और आप सभी लोगों के लिए आराम करने की जरूरत है। साथ ही साथ हम अपने सर के लिए भी आप लोगों से विशेष यह कहेंगे कि सुबह से शाम हो गई और शाम से फिर रात्रि हो गई। हमारे सर को आराम नहीं मिला इसलिए आप सब भी खुशी-खुशी उन्हें आराम दीजिए। और खुशी खुशी आप सब भी अपने यथा स्थान पर जाकर आराम कीजिए। इतना सुनते ही आगंतुकों में कुछ खुसर फुसुर हुआ। और फिर वे हंसते मुस्कुराते हुए उन नव दंपतियों को शुभ आशीर्वाद देकर अपने-अपने धाम प्रस्थान कर गए।
अगर आपको हमारी ये कहानी पसंद आई हो तो वीडियो को लाइक करें, चैनल को सब्सक्राइब करना न भूलें, और बेल आइकन दबाएं ताकि अगली कहानी की घंटी सबसे पहले आप तक पहुँचे!
कहानियाँ जो दिल से निकलती हैं, उन्हें सुरक्षित रखना हमारी ज़िम्मेदारी है। Stories that come from the heart, protecting them is our responsibility.
क्या चितरंजन अपने प्रण में सफल होंगे?
क्या वर्षों पुरानी प्रेम कहानी फिर से मुस्कराएगी?
जानने के लिए जुड़े रहिए... अगला भाग एक नए मोड़ के साथ आपके सामने होगा एपिसोड 5 ।
मत भूलिए — कुछ कहानियाँ अधूरी नहीं रहतीं, बस उन्हें पूरा करने वाला चाहिए होता है!
कर्म और भाग्य की लड़ाई | एपिसोड सीरीज़
एपिसोड 1:
एपिसोड 2:
एपिसोड 3:
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
कृपया अपनी राय साझा करें, लेकिन सम्मानजनक भाषा का प्रयोग करें।