कर्म और भाग्य की लड़ाई|Karm aur bhagya ki ladai episode 2
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रवि सर चितरंजन दास को खाना भेट करते हुए। |
चितरंजन दास चला शहर की तरफ एक नई उम्मीद लेकर।
कहते हैं, इंसान अपना भाग्य खुद लिखता है... लेकिन क्या वाकई?
या फिर भाग्य ही इंसान की राहें तय करता है?
यह कहानी है चितरंजन दास की...
एक ऐसा नौजवान, जिसने गरीबी से लड़ने का संकल्प लिया,
अपनों के लिए सबकुछ छोड़ दिया...
लेकिन क्या वह अपने भाग्य को बदल पाया?"
"यह कहानी काल्पनिक है, लेकिन समाज की सच्चाइयों से प्रेरित।
इसके पात्र और घटनाएँ किसी भी जीवित व्यक्ति या स्थान से मेल खा सकती हैं, पर यह केवल एक संयोग होगा।
लेखक: केदार नाथ भारतीय"
कर्म और भाग्य की लड़ाई| चितरंजन दास की संघर्ष गाथा भाग - 2
वह उत्साह के कौतूहलता में डूबा हुआ बिना पीछे मुड़े,आगे की तरफ बढ़ता ही चला जा रहा था, जिसके कर्म गति के साथ साथ उसका भाग्य भी जुड़ा हुआ, बहुत ही सरल सहज और सुगमता के साथ चुपके चुपके कर्म लेखा का हिसाब किताब लगाते हुए संघ संघ चल रहा था, उसे क्या पता था कि कर्म कितना भी महान हो बलवान और तेजस्वी हो, फल और पुण्य से लवरेज हो किन्तु यदि भाग्य रेखा में अशुभता या दोष की लेशमात्र भी कहीं छाया आ गई हो,या विधि लेख ही विकार रेखाओं से घिसी पीटी हो,वक्र रेखाओं से दबी कुचली हो, तब उसका परिणाम निजी जीवन के लिए शुभ दायक नहीं हो सकता,चाहे वह कर्म की पूर्णता पर अग्रसर हो या कर्म की इति श्री के निकट, भाग्य सदा ही कर्म के अधीन, उसके फल के समीप, सदैव ही सचेत रहा करता है । व्यक्ति चाहे जितना भी अपने तन के शोणित धार को पानी पानी बना दे, कर्मठता का सीमांकन लांघ जाए, रात्रि को दिन और दिन को रात्रि बनाकर परिश्रम करता रहे किंतु फल उनके भाग्य के अनुरूप ही उन्हें प्राप्त होगा, फल पर किसी भी प्राणियों का कोई विशेष तटस्थ अधिकार नहीं हो सकता । कुछ समय के लिए यदि हम इस तथ्य को अस्वीकार करते हुए यह सिद्ध करने की चेष्टा करें कि हमें पूर्ण कर्म फल की प्राप्ति हो चुकी है अब हम अपने इस फल से पूर्ण रूपेण सुख शांति प्राप्त लेंगे, तो यह भी असंभव ही होगा । क्योंकि आपका कर्म फल, आपके भाग्य से जुड़ा होने के कारण, आप उतना ही सुख प्राप्त कर सकते हैं जितना की हस्तरेखा लेख में, आपके लिए सुख का योग पहले से ही लिखा गया है ।
अंततोगत्वा आप चाहे जितना भी हाथ पैर मार लें, किंतु आप संपूर्णता का फल, एवं सुख वैभव कभी नहीं प्राप्त कर सकते, वैसे यहां पर देखा जाए तो चितरंजन दास जी का, गरीबी से युद्ध करने का जो निर्णय लिया गया है वह बड़ा ही सराहनीय कहां जा सकता है किन्तु , अपने उन अबोध दुधमुंहे बच्चों को छोड़कर तथा अपनी स्त्री को भूखे प्यासे हाल में यूं ही अनिश्चितकाल के लिए त्याग कर, इतना बड़ा संकल्प लेते हुए परदेस की यात्रा पर जाना, क्या यह उचित निर्णय कहा जा सकता है,वैसे भी परिणय सूत्र के बंधन में बंधा हुआ कोई भी प्राणी इतना आजाद नहीं हो सकता, जितना कि चितरंजन दास ने आजाद होकर निर्णय लिया । निर्णय भी ऐसा लिया कि बगैर अपनी पत्नी से परामर्श लिए ही उन बच्चों को भी अनिश्चितकाल के लिए त्याग देने का साहस किया । ये तो रही चितरंजन दास से जुड़ी हुई आम जीवन तक पूर्ण सच्चाई का कथा बिन्दु । किन्तु चितरंजन दास दुनिया से बेखबर हो, अपने गंतव्य पथ की दिशा में बढ़ता ही चला रहा था । शाम को 7:00 बजने को आए थे, वह भूखे प्यासे पथिको की भांति, बदसूरत बेहाल दशा में, धूप छांव नामक रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर बड़ी मुश्किल से पहुंचा ।
वहां चारों तरफ से दूर-दूर तक इलेक्ट्रॉनिक बल्ब रोशनियों का पहरा लगा हुआ था,जहा का वातावरण बड़ा ही मनोहारी था । वह पूर्ण सौंदर्य आभा की सुरम्यता से श्रृंगार रत, विटप छाया से आच्छादित था । वहां पहले से ही अपार जन समूहों की कसी हुई भीड़े,अकूत शोरगुलों की ध्वनियों से पटी, शांति से हृदय कूप में बैठे हुए अंतर्मन को झकझोर रही थी । वह ऐसे चतुर्दिक शोरगुलों को सुन सुनकर, आश्चर्यचकित हो रहा था । अनाउंसमेंट स्पीकर की आवाजें चारों तरफ से शोरगुल मचा मचा कर उसके हृदय की धड़कनों को अनायास ही बढ़ाये जा रही थी । चितरंजन दास अपने सूखे हुए गले से कभी इधर, तो कभी उधर मुंह फाड़े हुए घबराहट की स्थिति मे एक-एक पथिक परदेसी को, बड़े ही विस्मय बोधक भाव में आश्चर्यजनक की दृष्टि से निहारे जा रहा था । वह अपने जीवन काल में शायद पहली बार रेलवे स्टेशन आया था, वह यह भी नहीं जानता था कि उसे परदेश जाने के लिए एक रेलवे टिकट खरीदना पड़ेगा । वह स्निग्ध रेलवे प्लेटफार्म पर अपने पांव बहुत ही संभाल संभाल कर रखे जा रहा था तभी उसके दाहिने दिशा में, पूरी और सब्जी का ठेला दिखाई पड़ा, जिसके अगल-बगल कुछ लोग बेंच पर बैठे हुए,और कुछ लोग खड़े-खड़े ही पत्तल में पुरिया और सब्जियां खा रहे थे, जिसे देखकर चितरंजन दास के मुंह में पानी भर आया, और वह उसी तरफ बड़ी तेजी के साथ लपका, किंतु यह क्या, अपने पेंट की जेब में वह जैसे ही हाथ डाला, उसके जेब में मात्र ₹50 ही थे, वह वही ठिठक कर खड़ा हो गया, उसकी स्त्री का चेहरा और उन दोनों मासूम बच्चों का किसी पुष्प कमल की भांति मुखड़ा, उसके आंखों के सामने ही फिल्म चलचित्र की भांति उभरने लगा, वह भावुक सा होता चला गया । उसे याद आने लगा कि उसकी स्त्री जिस रात वह घर छोड़ा था, उसे भोजन करा कर वह स्वयं उपवास करके खाली पेट अपने बच्चों को साथ एक बूढी सी चारपाई पर सो गई थी, क्योंकि घर में एक भी दाने नहीं थे। उस वक्त चितरंजन दास का कलेजा मुंह को आ गया था,इसीलिए वह इतना बड़ा कठोर निर्णय लेने पर मजबूर हुआ था, अतः वह उसी क्षण मन ही मन चिल्लाया था.. न..नहीं..नहीं.. मुझे अब यहां नहीं रहना है या तो अब इस घर में यह गरीबी रहेगी या फिर मैं रहूंगा, अब मैं यहां एक पल भी नहीं रह सकता, इस दुर्दिनता का झंझावत, मुझसे अब नहीं सहन होगा, जब तक मैं इस गरीबी से युद्ध करने में पारंगत हासिल नहीं कर लूंगा, तब तक मैं अपने इस घर में नहीं आ सकता । वह यही सब कुछ सोचते सोचते, धीरे-धीरे ठेले के विपरीत दिशा में आगे की तरफ बढ़ने लगा की तभी पीछे से किसी ने उसे मृदुल आवाज में पुकारा..। ओ बच्चे, जरा इधर तो आओ हम आपको ही बुला रहे हैं, आओ आओ मेरे पास। वह व्यक्ति किसी संभ्रांत परिवार से संबंध रखने वाला बड़ा ही आजाद,अनोखा एवं निराला प्रकृति का था, उसकी वेशभूषा ही उसके भद्रता का परिचय गा रही थी, वह यूनिवर्सिटी के छात्रों की तरह एक टोपी भी अपने सर पर लगाया हुआ था जिसके अग्रभाग में इंडियन आर्मी लिखा था, दाहिने कंधे से झूलती हुई उसकी ब्लैक कलर की बैग, व्हाइट कलर की शर्ट एवं ब्लैक कलर की ही पेंट पहने हुए किसी ऊंचे खानदान से ताल्लुक रखने वाला मिस्टर महाशय प्रतीत हो रहा था । उसके जूते भी चांदी के समान सफेद थे एवं रिबन भी सफेद ही सफेद थे, देखने में वह 55 साल के करीब था, किन्तु जब चितरंजन दास धीरे-धीरे डग भरते हुए उसके स्मीप पहुंचे, तब वह व्यक्ति चितरंजन दास के आगे आकर बड़े हिर्दययता से पूछा... क्या नाम है आपका।
चितरंजन दास,उसने बताया ।
बड़ा ही सुंदर नाम है, वैसे मुझे रवि कुमार कहा जाता है, मेरा नाम रवि है, बेटे घर में कौन-कौन हैं...। वह व्यक्ति बड़े ही अपनत्व की भावना से चितरंजन दास से पूछा।
सर मां बाप है बीवी है बच्चे हैं और अपना घर मकान है।
ओह तो आपकी शादी हो चुकी है, कोई बात नहीं आप यहां से कहां लिए टिकट कटाए हैं।
देखिए सर,मैं अपनी लाइफ में पहली बार रेलवे स्टेशन आया हूं यहां के किसी भी नियम से मैं परिचित नहीं हूं वैसे भी मैं पहली बार यहां आकर ट्रेन देखूंगा और उसमें यात्रा के लिए बैठूंगा भी, रही टिकट की बात तो मेरे पास इस समय मात्र ₹50 हैं । चितरंजन दास ने बगैर कुछ छुपाए हुए,वह सब कुछ बक दिया, जिसे लोग अक्सर छुपाया करते हैं।
आपकी बातों से मुझे बहुत खुशी हो रही है।कृपया आप ये बताएं कि आप यहां से कहां जाएंगे। वह व्यक्ति रवि कुमार चितरंजन दास से मुस्कुराते हुए पूछे।
सर मुझे ये भी नहीं पता कि हमें कहां जाना है,चितरंजन दास ने कहा।
ओ माय गॉड। उस व्यक्ति को बड़ा ही आश्चर्य हुआ, वह चितरंजन दास से पुनः पूछा, आप बाहर परदेस क्यों जाना चाहते हैं।
सर मुझे अपने घर की ग़रीबी का समूल नाश करना है, उसे जड़ से उखाड़ कर बहुत दूर फेंक देना है जिससे कि वह हमारे घर में फिर दुबारा प्रवेश न कर सके। चितरंजन दास के शब्दों में चट्टान जैसी कठोरता थी, हम अपने घर तभी जाएंगे सर, जब हम इस पिचासिनी जैसी डायन गरीबी का वध करने में पूर्ण सक्षम हो जाएंगे।
वह रवि कुमार चितरंजन दास की विचार भावनाओं से प्रभावित होकर बड़े ही गंभीर स्वर में बोले...देखिए आपकी सोचें, इस उम्र में बहुत बड़ी है, मैं तो इतना ही कहूंगा कि इस दुनिया में क्या धनिक, क्या निरधनी, सब के सब अपनी अपनी ग़रीबी को दूर करने के लिए,यानी कि उसका वध करने के लिए दिन रात पागल कुत्तों की तरह गली गली भाग रहे हैं दौड़ रहे हैं किंतु गरीबी नहीं जा रही आखिर क्यों,क्यों नहीं गरीबी जा रही, कारण क्या है..चितरंजन दास..जहां आवश्यकता है जहां इच्छाएं हैं और जहां वासनाएं हैं, वही गरीबी है, जब इच्छाओं आवश्यकताओं और वासनाओं की पूर्ति नहीं होती तो वही लाचारगी आ जाती हैं, और ऐसी ही लाचारगी को दुनिया गरीबी कहती है, गरीबी कोई संजीव या निर्जीव देहधारी प्राणी नहीं होती,बल्कि अपनी अपनी प्रबल इच्छाएं होती है, जब वह पूर्ण नहीं होती तब वह अपूर्ण कहलाती है यही अपूर्णता ही इंसान की गरीबी होती है अतः मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि आप अपने बाल बच्चों में रहे और मेहनत परिश्रम करें इच्छाओं पर अंकुश लगाए सदा ही आप आजाद रहेंगे तब आपके जीवन में न गरीबी रहेगी और नहीं लाचारगी रहेगी, आप सदा ही सुखी रहेंगे और खुश रहेंगे। रवि कुमार ने चितरंजन दास को बड़े ही मनोवेग़ से समझाने का प्रयास किया, उसके आगे उन्होंने कहा कि आइए कुछ पूरियां और सब्जियां लेकर खाते हैं, चितरंजन दास खामोश रहा किंतु कुछ क्षण बाद वह संकोच बस भोजन करने से इनकार कर दिया, तब रवि कुमार ने प्यार से समझाते हुए कहा,तुम मुझे अपना बड़ा भाई कह सकते हो।आओ तुम्हें तुम्हारे इस बड़े भाई की सौगंध है तुम मेरे साथ भोजन करोगे इनकार नहीं करोगे नहीं तो मेरा दिल टूट जाएगा। मैं आपसे वादा करता हूं मैं एक कारपेंटर हूं, मुंबई में मेरी बहुत बड़ी फैक्ट्री है और मैं उसका मालिक भी हूं आप पढ़े लिखे नौजवान हैं मैं आपको वहां बहुत बड़ा जाब दिलवाऊंगा, मेरा विश्वास कीजिए आप मेरे साथ आइए और पुरिया खाइए । वास्तव में गरीबी और अमीरी एक मनोविकार है जिसका इलाज अपनी अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगाना । जिस दिन मानव प्राणी इच्छा रहित होकर जीवन जीना सीखेगा, वह दुनिया का सबसे बड़ा सुखी इंसान होगा न उसके लिए गरीबी रहेगी और न हीं उसके लिए अमीरी। चितरंजन दास बिना कुछ बोले,रवि कुमार के साथ ठेले वाले दुकानदार के पास जाकर खड़ा हो गया ।
वे दोनों दीपक एक्सप्रेस ट्रेन में सवार होकर,बड़े ही इत्मीनान ढंग से, फर्स्ट क्लास के वातानुकूलित डिब्बे में बैठ गए । रवि कुमार चितरंजन दास से मुखातिब होते हुए बोले..क्या मैं आपका नाम चितरंजन दास के स्थान पर विजय कुमार रख दूं क्योंकि विजय कुमार नाम मुझे बचपन से ही बहुत प्यारा लगता है।
ऐसा क्यों सर, चितरंजन दास ने कहा,क्या मेरे मम्मी पापा के द्वारा रखा हुआ मेरा नाम चितरंजन दास आपको अच्छा नहीं लगता ।
अरे ऐसी कोई बात नहीं,रवि कुमार ने कहा, आपका नाम तो बहुत ही खूबसूरत है चितरंजन दास। आपके मम्मी पापा ने कितना सोच समझ कर यह नाम रखा होगा, चित मन के विकारों का हरण कर,मनोरंजन प्रदान करने वाला, यह सुंदर सा नाम, चितरंजन दास, सदैव ही सम्मुख बैठे व्यक्तियों को, अपनी तरफ आकर्षित करता है, जैसे कि मुझे । किन्तु पता नहीं, हमें यह नाम थोड़ा बोलने चालने में अटपटा सा लगता है, इसलिए चितरंजन दास से अब आप विजय कुमार बन जाइए,क्या यह अच्छा नहीं रहेगा । रवि कुमार की बात सुनते ही चितरंजन दास ने मुस्कुराते हुए कहा...।
अरे क्यों नहीं सर, यह नाम तो और भी प्यारा है, अभी से ही आप मुझे विजय कुमार कहिए, मुझे बहुत अच्छा लगेगा। तब तक दीपक एक्सप्रेस ट्रेन भी, अपने तीव्र गति में देखते ही देखते आंधी तूफान बनती चली गई ।
सर ट्रेन तो बहुत फास्ट हो गई, कौन सी ट्रेन है ये,चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार ने रवि कुमार से पूछा ?
दीपक एक्सप्रेस ट्रेन है ये, इसी से हम अक्सर मुंबई के लिए जाया करते हैं, रवि कुमार ने बड़े ही सहज भाव में जवाब दिया। दीपक एक्सप्रेस नाम सुनते ही चितरंजन दास अचानक ही चौक पड़ा, रवि कुमार की अनुभवी दृष्टि उसके चेहरे पर पहले से जमी थी, वे तुरंत बोल पड़े क्या हुआ विजय, ऐसे आप चौक क्यों गए।
सर, बात कोई खास नहीं है।चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार, उदास होते हुए बोले।बात सिर्फ इतनी सी है कि इस ट्रेन के नाम के साथ साथ हमारे बेटे दीपक का भी नाम जुड़ा है जब आप दीपक एक्सप्रेस ट्रेन का नाम लिए, तो मुझे अपने बेटे की याद आ गई ।
ओह! इतनी सी बात,इसमें चौंकने की क्या बात है, दीपक एक्सप्रेस ट्रेन में तुम्हारे बेटे का नाम होने के कारण हमारा सौभाग्य है कि हम उसकी कश्ती में बैठकर मुंबई जा रहे हैं। अच्छ विजय आप ये बताइए कि आप अपने घर की गरीबी को दूर करने के लिए हमारे साथ आप मुंबई चल रहे है, आप अपने घर की गरीबी को कैसे दूर करेंगे,परिश्रम से या फिर दिमाग से। रवि कुमार जी चितरंजन दास की आंखों में आंखें डालकर ऐसे पूछे,जैसे कि ओ कोई इंटरव्यूअर हो किन्तु चितरंजन दास भी कोई बुद्धू नहीं था, वह भी पढ़ा लिखा स्वयं में उच्च विचारक था, उसने बड़े ही सहजता के साथ जवाब दिया सर, बिना मेहनत परिश्रम के दिमाग भी अपना कार्य नहीं करता, दिमाग से कोई चीज सोचेंगे तो उसमें भी मेहनत परिश्रम की आवश्यकता होती है । वैसे सर आप अभी तक अपने विषय में हमें कुछ भी नहीं बताये, कृपया कुछ तो बताएं।
चितरंजन दास की बातें सुनते ही रवि कुमार के होठों पर हल्की सी मुस्कान तैर उठी, वे गंभीर होते हुए बोले।हम प्रयागराज उत्तर प्रदेश से हैं विजय । बचपन में ही मेरे मां-बाप गुजर गए थे, मेरी परवरिश मौसी के घर हुई थी, घर में अत्यधिक गरीबी होने के कारण मैं ज्यादा पढ़ लिख नहीं सका, फिर भी हम किसी कारपेंटर की दुकान में मजदूरी करते हुए इंटरमीडिएट पास किए, इसी बीच हमारे मौसी मौसा के ऊपर, एक घटना घटित हो गई । सावन भादो का महीना था झमाझम बारिश हो रही थी, मैं किसी काम से बाजार आया हुआ था मेरे मौसी का घर कच्चा था, पुरान दीवार होने के कारण, उस बारिश में वह माटी का घर भरभरा कर अचानक गिर गया, और वे हमारे मौसी मौसा उसी में दबकर हमेशा हमेशा के लिए इस दुनिया से रुखसत हो गए, उनके निधन पर हमारे आंसू थम ही नहीं रहे थे । हम बहुत रोये, उनके लिए बहुत तड़पे गांव के लोगों ने हमें समझाया बुझाया, और प्यार दुलार जताया किंतु मैं पूरी तरह से टूट चुका था अनाथ हो चुका था । अंत में हमने उनका मरणोपरांत, सारा क्रिया कर्म करके, मुंबई चला आया और खुद से दिन रात कार्पेंट्री फैक्ट्री में,मेहनत परिश्रम करके हमने ₹560 प्रति विश्वा के दर से 10 विश्वा जमीन एक महाराष्ट्रीय किसान से खरीद लिया, जिसने अपनी बेटी की शादी में बड़ी मजबूरी आने के पश्चात उसे बेचा था । अंततोगत्वा हमने 7 वर्ष अथक मेहनत परिश्रम करके, उस जमीन में कारपेंटर फैक्ट्री खोला, जब पैसे कम पड़ते,तो हम गांव में जाकर अपनी जमीन गिरवी रखते या फिर उसे बेच देते । इस तरह से हम वहां मुंबई में अथक मेहनत परिश्रम करते हुए सफलता हासिल किए, किंतु इसी संघर्ष के मध्य, हमारे जीवन के तमाम सावन भादो,
बीतते चले गए ,और मुझे अपनी शादी के विषय में भी कोई ख्याल नहीं आ सका, अब तो उम्र भी हमारी आधे से ज्यादा बीत चुकी है, खैर छोड़ो इन सभी बातों को,तुम मेरे साथ हो, इसलिए मुझे अब कोई चिंता करने की जरूरत नहीं, मेरा कारपेंटर उद्योग भी,अब पहले से कहीं ज्यादा विस्तारवादी हो चुका है, अतः आप कारखाना संभालोगे और हम सामानों के आयत निर्यात पर ध्यान देंगे, तुम्हें तुम्हारी गरीबी दूर होगी, और हमें हमारी जिंदगी तुम्हारे वजह से खुशमिजाज होगी, तुम मेरे बेटे के समान हो तुम मेरे छोटे भाई के समान हो हम तुम्हें सदा ही पुत्रवत एवं छोटे भाई होने का गौरव स्नेह देंगे, हम रहे या ना रहे लेकिन मेरी मेहनत का वह उद्योग कारखाना तुम्हारे साथ तुम्हारा होगा। इससे पहले कि रवि कुमार कुछ और बोलते, चितरंजन दास की तरफ देखते ही वे भावुक हो उठे, उनके मुख से सिर्फ इतना ही निकला,अरे - अरे तुम रो रहे हो बेटे, तुम्हारे इन आंखों से आंसू ऐसे क्यों निकलने लगे। सर, चितरंजन दास, किसी तरह से भर्राये हुए गले से बोला। सर, यदि इस संसार में कहीं भगवान होंगे तो वे आप ही की तरह होंगे। कहते हुए वह रवि कुमार के गोदों में अपना सर रखकर फफक - फफक कर रोने लगा । रवि कुमार चितरंजन दास के सर पर हाथ फ़िराते हुए स्वयं अश्वजलों से अपने नैनों को भिगो बैठे।तभी ट्रेन अगले स्टेशन पर जैसे ही पहुंचने को हुई, वह जोर-जोर से हॉर्न देने लगी......।
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