ब्रह्मराक्षस ने राघव को सुनाई मौत की तारीख!"Brahmarakshas Told Raghav the Date of His Death" Author kedar|(विचित्र दुनिया उपन्यास कहानी भाग 5)
"हा.. हा.. हा.. हा.. हा! अरे मूर्ख लड़की! मेरे आने का कारण पूछती है? हा.. हा.. हा.. हा..! मेरे आने का कारण है – इस लड़के के प्रति तेरी दीवानगी, तेरी बेसुमार चाहतें और तेरी प्यार भरी उल्फ़तें, समझी? हा...! हा...! हा...! हा! पागल लड़की! तुम्हें पता है यह कौन है? यह मानव है – मानव! हाड़–मांस का, दिमागी मानव! तुम इसके साथ शादी कैसे करोगी, जबकि तुम एक आत्मा हो – बिना शरीर के, बिना नरकंकाल के! फिर भी तुम्हारी शादी इसी से हमने सुनिश्चित कर दी है, सिर्फ तुम्हारी मोहब्बत देखकर।"
"किंतु इससे पहले कि तुम्हारी शादी इससे संभव हो – इसकी आत्मा इसके शरीर से बाहर निकालनी होगी... अर्थात इसकी मौत! हा...! हा...! हा...! हा..! इसकी मौत! हा...! हा...! हा...! हा..! हा! इसकी मौत!"
राघव एक फाइव स्टार होटल में आराम कर रहा था, तभी गांव में भूकंप की खबर उसे बेचैन कर देती है। वह फौरन निकल पड़ता है, लेकिन जैसे ही बस से उतरता है — बस रहस्यमयी ढंग से गायब हो जाती है!
गांव की तलाश में राघव भटकता है, पर हर चीज़ अजीब और अनजानी लगती है। तभी एक सफेद पोशाक वाला देवदूत चेतावनी देता है — "यह स्थान तुम्हारे लिए नहीं है!" और कोई चीखता है — "मुझे बिना मरे जीना है!"
अचानक गिद्ध राघव को उठा ले जाते हैं, लेकिन आपस में लड़ते हुए उसे गिरा देते हैं। वह गिरता है... ऐसी जगह जहाँ कोई इंसान या जानवर नहीं पहुंच सकता।
जब होश आता है, राघव खुद को एक बदबूदार झोपड़ी में पाता है। तभी एक सुंदर लड़की आती है और देखते ही देखते वह झोपड़ी एक महल में बदल जाती है। उसका नाम है — शशिकला। वह राघव से प्रेम का इज़हार करती है। राघव सोच में पड़ जाता है — क्या ये एक पिशाच है?
फिर भी… वह "हाँ" कह देता है।
अब सवाल ये है — क्या राघव और शशिकला की शादी होगी या यह एक और धोखे की शुरुआत है?
जाने अगले भाग में…
मकान की बाहरी डिजाइन सर्वश्रेष्ठ थी – संतुलित आकार, आकर्षक डिजाइन, सुंदर दरवाजे और खिड़कियां, पेड़-पौधों की हरियालियां एवं आउटडोर लाइटिंग देखने में बेहद सुंदर लग रही थीं। मकान के अंदर आरामदायक फर्नीचर एवं सुंदर दीवारों पर नंबर एक की डिजाइन, पक्की फर्श तथा दरवाजे पर रंगीन परदे लगे हुए थे। संपूर्ण मकान इत्रों की खुशबुओं से सुगंधित था।
शशिकला राघव के कंधों पर और राघव शशिकला की कंधों पर हाथ रखकर दोनों हँसते-खिलखिलाते हुए ठीक मकान के सामने आकर रुक जाते हैं।
राघव मकान की भव्यता देखकर घबरा जाता है। वह शशिकला के हाथों को अपने कंधों से हटाते हुए भयभीत शब्दों में चिल्लाया – "अरे–अरे ये क्या! इतना बड़ा मकान? बाप रे! ऐसा मकान तो पहले यहां दूर-दूर तक कहीं भी नहीं था। ये... ये अचानक इतना बड़ा मकान!"
"शशि–शशि... म–मुझे बताओ, मुझे बताओ कि... कि ये मकान किसका है? किसका है ये मकान? इतना बड़ा मकान! म–मुझे बताओ शशि, न–नहीं तो आश्चर्य से मेरे प्राण निकल जाएंगे।"
वह पसीने–पसीने, बेहोश होते-होते जैसे ही जमीन पर लड़खड़ाकर गिरने लगा, वैसे ही तत्काल शशिकला वहाँ आकर अपनी सुकोमल बाहों में राघव को भरते हुए, अपने इस नए मकान के वातानुकूल बेडरूम में लेकर चली गई।
वह मखमली बिस्तर पर राघव को लिटाकर, अपने आँचल से जल्दी-जल्दी राघव के चेहरे पर आए हुए पसीने को पोंछने लगी। साथ ही साथ, उसके मस्तक पर शीतल जल का छिड़काव करते हुए वह रोने लगी – "न–नहीं... नहीं! मेरे शिरोमणि, म–मैं आपको कुछ भी नहीं होने दूंगी। भले ही आप एक मनुष्य के रूप में हैं, एक मानव शरीर में हैं, किंतु आप मुझे ऐसे ही जीवन भर अच्छे लगेंगे। मैं आपको अब कहीं भी जाने नहीं दूंगी। सदा ही मैं आपके साथ रहूंगी, और न ही मैं आपसे अपना परिचय छुपाऊंगी, और न ही अपना लोक छिपाऊंगी।"
"हे राघवेंद्र, हे मेरे प्रीतम! मैं आपका साथ निभाऊंगी, भले ही मैं एक आत्मा हूं। आप जैसा मनुष्य तन मेरे पास नहीं है, किंतु मैं आपका साथ जीवन पर्यंत नहीं छोड़ूंगी। इसके लिए चाहे मेरे बाबा ब्रह्मराक्षस जी मुझे जो भी दंड दें – हम उसे सहर्ष स्वीकार करूंगी।"
कि तभी एक भयानक अट्टहास – "ही... ही... ही... हीं! हुँ... हूँ... हुँ! हा... हा... हा...!"
"बाबा, आप!" शशिकला अपने बाबा ब्रह्मराक्षस का अचानक आगमन देखकर सकपका सी गई। वह सहमते हुए विनम्र भाव में बोली – "ब–बाबा... बाबा, आप! किसी से संदेश भिजवा दिए होते, तो मैं स्वयं ही आपके पास चली आती। आखिर यहाँ अकस्मात आने का क्या कारण है?"
"हा.. हा.. हा.. हा.. हा! अरे मूर्ख लड़की! मेरे आने का कारण पूछती है? हा.. हा.. हा.. हा..! मेरे आने का कारण है – इस लड़के के प्रति तेरी दीवानगी, तेरी बेसुमार चाहतें और तेरी प्यार भरी उल्फ़तें, समझी? हा...! हा...! हा...! हा! पागल लड़की! तुम्हें पता है यह कौन है? यह मानव है – मानव! हाड़–मांस का, दिमागी मानव! तुम इसके साथ शादी कैसे करोगी, जबकि तुम एक आत्मा हो – बिना शरीर के, बिना नरकंकाल के! फिर भी तुम्हारी शादी इसी से हमने सुनिश्चित कर दी है, सिर्फ तुम्हारी मोहब्बत देखकर।"
"किंतु इससे पहले कि तुम्हारी शादी इससे संभव हो – इसकी आत्मा इसके शरीर से बाहर निकालनी होगी... अर्थात इसकी मौत! हा...! हा...! हा...! हा..! इसकी मौत! हा...! हा...! हा...! हा..! हा! इसकी मौत!"
"और हमने इसकी मृत्यु भी सुनिश्चित कर दी है। आने वाली काली अमावस्या की अर्धरात्रि को इसकी बलि चढ़ाई जाएगी, जिसमें हम अपने बिरादरी के सभी आतिथ्यगणों को आमंत्रित करेंगे। तब तुम देखना, उस दिन हमारे यहाँ कितना बड़ा भव्य उत्सव होगा! हा...! हा...! हा...! हा...! हा! समझी? क्या समझी? हा...! हा...! हा...! हा...! हा! हम और हमारी बिरादरी को एक मानव का मांस खाए हुए बहुत दिन हो गए हैं। अब हम उस दिन खूब चख–चख कर मानव माँस खायेंगे और जश्न मनाएंगे। खूब मज़ा आएगा – खूब नाच–गाना होगा! खूब ढोल बजेंगे, खूब ताशे बजेंगे! क्या समझी? हा.. हा.. हा.. हा.. हा.. हा.. हा.. हा.. हा..!"
तभी अकस्मात उसके चेहरे का रंग उड़ गया। वह भय से थर–थर काँपने लगा। उसकी गर्जना, उसका अट्टहास, एकाएक खामोश हो गया। अब वह पूरी तरह से शांत था। उसके चेहरे पर मलिनता के धुंध छा गए थे, जैसे कि वह श्मशान घाट से पैदल चलकर मुँह लटकाए वहीं आकर ठहर गया हो।
वह सौंदर्य की प्रतिमूर्ति बनी शशिकला, अचानक अपने बाबा के चेहरे का उड़ा हुआ रंग देखकर घबरा सी जाती है। इससे पहले कि वह कुछ बोलती, उसके बाबा ब्रह्मराक्षस जी, बड़े ही मद्धिम आवाज में, घबराए हुए स्वर में बोल पड़े –
"बेटी शशि, वह धूम्रा राक्षस हमारा पीछा कर रहा है। जानती हो वह कौन है? वह पांड्या पहाड़ का मालिक – अति बलशाली, तेजस्वी और बुद्धिमान है। जब तुमने उस नवयुवक को, जो पहाड़ों की तराई में गिरा हुआ बेसुध अवस्था में मरणासन्न था, उसको उठाकर अपने इस राजमहल में लेकर आई थी – सच पूछो तो उस नवयुवक पर प्रथम अधिकार धूम्रा राक्षस का ही था। किंतु तुमने उसे उठाकर जो यहाँ तक लाई – वह सबसे बड़ी भूल थी तुम्हारी।"
"अब वह धूम्रा राक्षस तुम दोनों को ढूँढ़ रहा है, लेकिन वह यहाँ तक तो नहीं पहुँच सकता। किंतु तुम दोनों को सावधानीपूर्वक इसी गुप्त कमरे में रहना है – तब तक के लिए, जब तक कि तुम दोनों की शादी नहीं हो जाती। और हाँ, ये भी याद रखना – यदि तुम दोनों भूल से भी उसके हाथ लग गए, तो समझो सारा खेल खत्म। अब मैं चलता हूँ अपने साथी–संघ के पास, अपना ख्याल रखना।"
"बाबा – बाबा... बाबा!" शशिकला चिल्लाई! किंतु वह अंतर्ध्यान हो गया। शशिकला शायद उससे कुछ कहना चाहती थी, लेकिन इसके पहले ही वह गायब हो गया।
राघव को अभी होश आने में देरी थी। इसके पहले कि उसकी तंद्रा भंग हो, शशिकला ने सोचा कि मैं तब तक अच्छा सा भोजन राघवेंद्र के लिए बना दूँ। वह रसोईघर में तत्काल भोजन बनाने के लिए चली गई।
राघव, इधर बेहोशी की हालत में बिस्तर पर पड़ा खर्राटे भर रहा था। अभी शशिकला को चंद मिनट भी नहीं हुए थे रसोईघर में गए, कि राघव को होश आ गया। वह इधर–उधर निहारता रहा, फिर बिस्तर से उठकर शशिकला को खोजने लगा। खोजते–खोजते वह उसी रसोई की तरफ चला गया जहाँ पर शशिकला पहले से ही थी।
किंतु वहाँ पहुँचने पर राघव ने जो कुछ देखा, देखते ही उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं, और वह वहीं... बड़ी तेजी के साथ चिल्लाते हुए, पुनः पक्की फर्श पर गिरकर बेहोश हो गया।
राघव की चीख सुनकर शशिकला बदहवास सी दौड़ पड़ी। वह पक्की फर्श पर पड़े हुए राघव को देखकर अपना आपा खो बैठी।है
वह जोर–जोर से रोते हुए राघव को अपने सीने से लगा ली। बिन जल मछली भाँति तड़पती हुई, राघव को मखमली बिस्तर की ओर लेकर भागी, जिस बिस्तर को राघव ने अभी–अभी कुछ समय पहले ही छोड़ा था।
वह राघव को नरम गद्देदार बिछौने पर ले आकर, अपनी गोदी में उसका सिर रखकर, बैठे–बैठे वहीं करूण क्रंदन करने लगी।
वह सोच रही थी कि — "मेरा राघवेंद्र एक मासूम मनुष्य है। और मैं... मैं एक पिशाच हूं। मैं तो सब कुछ सह लूंगी, किंतु मेरा यह राघवेंद्र, मेरा यह प्रियदर्शन, कुछ भी नहीं सह सकेगा।" वह रोते हुए स्वयं में ही, स्वयं से कह रही थी।
"म... मैं कितनी बड़ी मूर्खता कर बैठी जो अपने प्यार को अकेले बिस्तर पर ही छोड़कर रसोईघर में भोजन बनाने के लिए चली गई। और तो और, मेरे साथ वे रूही — स्त्री कंकालें, जो मेरे बाबा ने हमारी सुरक्षा में यहां छोड़ रखी हैं... वे सब नग्न अवस्था में भोजन बनाने में हमारा सहयोग कर रही थीं। मुझे क्या पता... कि यह मेरा राघवेंद्र इतनी जल्दी अपनी तंद्रा भंग करके यहां तक चला आएगा!"
"उसकी बेहोशी का मुख्य कारण... उन कंकाल सहित माँस रहित, वीभत्स स्त्रियों का डरावना चित्र था, जिसकी भयंवहता देखकर वह मेरा साजन सहन नहीं कर सका। यदि मैं ऐसे ही उसके साथ व्यवहार करती रही तो... तो वह कभी भी मृत्यु का शिकार हो सकता है। न–नहीं, नहीं... नहीं! मैं ऐसी गलतियां फिर दोबारा नहीं कर सकती।"
"पता नहीं, मेरा राघवेंद्र अपनी निजी ज़िंदगी में किन–किन रिश्तों से बँधा हुआ होगा। वह किसी का इंतज़ार हो सकता है, या फिर किसी का दुलारा हो सकता है, किसी के सावन माह में पड़ने वाली राखी का त्योहार हो सकता है।"
"कुछ भी हो, किंतु मेरा राजा तो मेरे लिए सबसे अधिक प्रिय है... अनमोल है। मैं इनके लिए वह सब कुछ सह लूंगी, वह सब कुछ कर लूंगी... जो एक राक्षस जाति के लिए असंभव है। अब तो मेरी यह रूह, इनके ही रूह में, हमेशा–हमेशा के लिए घुली रहेगी।"
शशिकला सोचते–सोचते, अचानक ही राघव के होठों पर अपने होंठ रखते हुए उस पर चुम्बनों की झड़ी लगा दी। उसकी भावुकता–पूर्ण सम्मोहन तथा छुई–मुई जैसी हरकत पाते ही राघव की तंद्रा भंग हो गई।
धीरे–धीरे राघव ने अपनी दोनों आंखें खोल दीं... सामने शशिकला को देखते ही वह चौंका —
"अरे... शशि—शशि! आप...?!"
वह दर्द से कराह रहा था — "शशि, शशि... मेरा सर दर्द कर रहा है... ऐसा करो, तुम मेरा सर दबा दो... प्लीज़..."
सुनते ही शशिकला की जैसे जान ही निकल गई हो। वह तत्क्षण राघव का सर अपनी गोदी में लेकर, अपने नरम–नाज़ुक हाथों से दबाने लगी।
राघव अब इसके पहले की सारी घटनाएं भूल चुका था और वह शशिकला के सुकोमल हाथों के स्पर्श से धीरे–धीरे मदहोश सा होता चला गया।
अचानक वह शशिकला के हाथों को अपने हाथों में लेकर, भावुकता–वश उसे चूमने लगा। वह मंद–मंद मुस्कान अपने होठों पर बिखेरते हुए धीरे से बोला —
"शशि... शशि... आप... आप मुझे बहुत ही खूबसूरत लगती हो, बहुत ही अच्छी लगती हो। क्या आप मुझसे शादी करेंगी? हम आपसे शादी करना चाहते हैं। हम आपके बगैर अब एक पल भी नहीं जीना चाहते... और न ही एक पल के लिए आपसे अलग होना चाहते हैं..."
वह सपाट लहजे में बोलता चला गया —
"प्लीज़... मुझे जल्दी बताओ... मुझसे आपको प्यार है कि नहीं? क... क्या आप मुझसे प्यार करती हैं? यदि करती हो, तो मुझसे कितना प्यार करती हो? क्या उतना ही प्यार करती हो, जितना कि मैं आपसे करता हूं...? तो बताओ शशि... मुझसे बताओ..."
राघव को इस प्रकार से प्यार का इज़हार करते हुए सुनकर शशिकला चौंक सी पड़ी... और उसे वह आश्चर्यजनक दृष्टि से देखती रह गई, जिसको इस प्यार का राघव के मुख से सुनने का इंतज़ार था।
किन्तु वह अपने दिल में इतनी बड़ी खुशियां दबाते हुए बड़े प्यार से बोली —
"राघवेंद्र... ऐसे तो आपने पहले कभी नहीं कहा, जो आज कह रहे हो। मैं भी आपसे उतना ही प्यार करती हूं, जितना कि आप मुझसे करते हैं... किंतु..."
इतना कहते ही वह खामोश हो गई। उसके इस प्रकार से चुप हो जाने पर राघव घबराया हुआ अकुलाकर जल्दी से बोला —
"किन्तु...? क्या...? शशि, क्या बात है? क्या मैं आपको अच्छा नहीं लगता? क्या मैं आपसे प्यार करने का कोई अधिकार नहीं रखता...? शशि... शशि... देखो न, आपकी चुप्पी से मेरा दिल कैसे धड़कने लगा है..."
"म... मैं कितना अभागा हूं शशि, जो भी चाहता हूं, वह मुझे नहीं मिलता..."
शशिकला उसकी दीवानगी देखकर, मन ही मन घायल पंछी की तरह तड़पने सी लगी। वह राघव से अब कुछ भी नहीं छुपाना चाह रही थी, किंतु वह सत्य भी तो उससे नहीं बता पा रही थी।
वह घबरा रही थी। वह सोच रही थी — "यदि मैं अपने विषय में पूर्ण सच्चाई इन्हें बता दूँ, तो मेरे राघवेंद्र का क्या होगा? कहीं वह भयभीत होकर पुनः बेहोश ना हो जाए!"
"बताऊं या ना बताऊं..." — वह इसी उधेड़बुन में राघव की ओर निहारती हुई उसकी नज़रों में अपनी नज़रें गाड़ दी।
शशिकला की खामोशी, राघव के लिए अब प्राणघातक सी बनती जा रही थी। वह लंबी–लंबी आहें भरते हुए बोला —
"ठ... ठीक है, कोई बात नहीं। आप मुझसे प्यार नहीं करतीं ना? कोई बात नहीं... मत करिए मुझसे प्यार... किंतु मैं तो आपसे करता हूं..."
"शशि, मुझे क्षमा कर देना... मैं ही ऐसा पागल दिल हूं, जो भी मन में आता है, उसे बक देता हूं। हे भगवान! मेरी याददाश्त मुझे वापस कर दो... मुझे तो अपने विषय में कुछ भी नहीं मालूम। जो भी मालूम है... वह मेरी शशि है। शशि के अलावा मैं कुछ भी नहीं जानता... किसी को भी नहीं जानता..."
कहते–कहते उसके नेत्र सजल हो उठे। उसके भरे हुए कंठ से एक–एक शब्द, शशिकला के दिल पर बिजली सी गिरा रहे थे। उसकी आंखों के आंसू उससे देखे नहीं जा रहे थे। अतः शशिकला ने अपने विषय में पूर्ण सत्य बताने का निश्चय कर लिया।
वह अपने लरजते हुए होठों से आखिरकार तड़प कर बोली —
"म... मेरे प्यार, मेरे प्राण–वल्लभ... जो भी आप मुझसे चाहते हैं, वही मैं भी आपसे चाहती हूं। लेकिन मैं कौन हूं, और आप कौन हैं — इसमें जमीन–आसमान का अंतर है।"
"आप तो एक मनुष्य हैं... क... किंतु... किंतु मैं... मैं एक आत्मा हूं। आपसे हमारा संबंध कैसे हो सकता है?"
"आप शरीर से हैं, जीवन से हैं। लेकिन मैं... मैं शरीर से रहित हूं। न ही मेरे पास शरीर है, और न ही जीने के लिए जीवन।"
"बताइये, मैं क्या करूं...? जो भी मैं आपसे छिपाना चाह रही थी, वही सब कुछ सत्य–सत्य आपको बताना पड़ रहा है। मैं आपके प्यार के समर्पण को देखकर कुछ भी नहीं छुपा सकी..."
कहते–कहते वह फफक सी पड़ी। राघव, शशिकला के नेत्रों में आँसू देखकर भाव–विह्वल सा हो उठा। वह अधीर होकर बोला —
"शशि, आपने अपने विषय में जो एक आत्मा बताया है, उसे हमने उसी दिन समझ लिया था, जिस दिन मेरी आंखें उस जीर्ण–शीर्ण, गंदे फ्लैट में बेहोशी के बाद खुली थीं। तब से लेकर अब तक के बीच मैंने विशेष परिवर्तन देखा है आप में।"
"उस छोटे से फ्लैट से... हमने समझ लिया था कि यह मनुष्य–लोक न होकर कोई अदृश्य आत्मा–लोक है, जिसमें आप स्वयं एक आत्मा हैं। अतः अब मुझे आपसे कोई भय नहीं लगता..."
"किंतु इतना आप हमें यह बता दें कि जिस रूप में आप हैं, क्या इसी मानव–स्त्री रूप में आप सदैव ही मेरे साथ रहेंगी? यदि रह सकती हैं, तो यह मेरा सौभाग्य होगा कि मैं आपके साथ अपना सारा जीवन हँसी–खुशी से बिता दूंगा।"
"अवश्य! मैं आपको वचन देती हूं कि हम अपना सारा जीवन आपके साथ मानव–स्त्री भेष में रहकर आपकी सेवा में, आपकी एक सच्ची अर्धांगिनी बनकर बीता दूंगी। सदा ही, सारी उम्र, सारी रातें आपके साथ रहूंगी... किंतु दिन में शायद ही कभी–कभी आ पाऊँ।"
"और हाँ! यदि कभी भी आपके ऊपर मेरे कारण... अपार कष्ट–संवेदनाओं की काली परछाईं मुझे देखने को मिली, तो वह लेशमात्र भी समय नहीं होगा... जब हम आपसे दूर होकर अपने लोक सदा–सदा के लिए चली जाएंगी। क्योंकि मैं अपने हेतु आपका दुःख नहीं देख सकूंगी। आपसे मेरा यह दृढ़ संकल्प है।"
कि तभी वहाँ अचानक धुंध सा छाने लगा। साथ ही साथ उदंड आँधियाँ भी कौतूहल मचाने लगी थीं। देखते ही देखते वह छोटी सी अधिया अब एक तूफ़ान का रूप धारण करने लगी थी। अब वहाँ पूर्ण अंधेरा था।
ऐसी स्थिति को देखकर शशिकला घबराई। उसे समझने में एक पल की भी देरी नहीं लगी। वह समझ गई थी कि यह वही धूम्रा राक्षस है, जिसके विषय में बाबा ने हमें एक–एक आखर बड़े जतन से सहेज कर बताया था।
इसके पहले कि राघव कुछ समझ पाता, वह बड़ी चतुराई से राघव को अपनी बाहों में समेटते हुए चुराकर... बड़ी तेजी से अपनी सांसों को नियंत्रित करती हुई वहीं दुबक कर बैठ गई।
- अगले भाग में जानिए धूम्रा राक्षस कौन हैं ?
- क्या राघव " शशिकला" से विवाह कर लेगा?
- क्या ब्रह्मराक्षस "राघव" की बलि देने और मानव मांस खाने खाने में सफल हो पाएगा।
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