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मोना मैम चितरंजन दास को परेशान करते हुए |
मोना मैम और चितरंजन दास का प्रेम–प्रसंग ।
नमस्कार और स्वागत है!
आप देख रहे हैं Author Kedar, जहाँ शब्दों से ज़िंदगी बदलती है और कहानियाँ दिल को छू जाती हैं।
आज हम लेकर आए हैं "कर्म और भाग्य की लड़ाई" की अगली कड़ी – एक ऐसी कहानी, जहाँ हर मोड़ पर सवाल उठता है ।
जहां शब्द मिलते हैं, वहां कहानियां सुनाई देती हैं।
कहते हैं, इंसान अपना भाग्य खुद लिखता है... लेकिन क्या वाकई?
या फिर भाग्य ही इंसान की राहें तय करता है? यह कहानी है चितरंजन दास की...एक ऐसा नौजवान, जिसने गरीबी से लड़ने का संकल्प लिया,अपनों के लिए सबकुछ छोड़ दिया... लेकिन क्या वह अपने भाग्य को बदल पाया ? "यह कहानी काल्पनिक है, लेकिन समाज की सच्चाइयों से प्रेरित। लेखक - केदार नाथ भारतीय" कर्म और भाग्य की लड़ाई| चितरंजन दास की संघर्ष गाथा भाग - 6
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पिछले भाग में ,
आपने देखा कि शादी के बाद मोना मैडम पूरी तरह बदल चुकी थीं। अब वह रवि सर से बार-बार झगड़तीं और बहस करतीं। वह बार-बार इस बात पर ज़ोर देतीं कि चितरंजन दास को गांव भेज दिया जाए। यह सब कुछ चितरंजन दास को उनके बेटे लल्ला के माध्यम से पता चलता है, और यह सुनकर उन्हें बेहद गहरा आघात पहुँचता है। अब आगे...
कहते हैं गुदड़ी में लाल छुपे होते हैं, यह कहावत चितरंजन दास उर्फ़ विजय कुमार के ऊपर, पूरी तरह से सटीक बैठते हैं । इस तथ्य पर संदेह करना भी संदेह का अपमान जैसा होगा ।
सत्य के ऊपर असत्य का अतिशयोक्ति होगा । चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार के अंतःकरण में एक वीर स्वाभिमानी कर्म योद्धा बैठा था, जिसके साथ सदैव ही, दूरदर्शिता की अनंत सोचें वास करती थी । चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार के भाग्य कवच पर, अभी अभी कुछ समय पहले ही, अप्रत्याशित हमले हुए थे । जो अत्यंत ही पीड़ादायक और असहनीय थे । नकारात्मकता का प्रदूषण एक बार फिर कुंदन जैसे भाग्य के ऊपर, ग्रहण बनकर छाने की कोशिश की थी ।
नकारात्मक और सकारात्मक की भाव भंगिमाये आपस में युद्ध करती हुई, कर्म डोर को फंदा बनाकर, कर्म के गले में डालकर, भाग्य को निर्देशित करती हुई उसे अपनी ओर खींचने की याचना करने लगी थी । किंतु भाग्य एक मूकदर्शक बनकर,असहाय सी अवस्था लिए अच्छे समय आने की प्रतीक्षा में, खुद को खुद में समेटे हुए किंकर्तव्यविमूढ़ सी अवस्था में चुपचाप अपने केंद्र में शांत होकर बैठ गया था ।
रात्रि के 10 बज चुके थे वह रवि सर का घर मकान छोड़कर, दो बजे तक अपने गांव चमकीपुर लौट जाने के लिए आकुल व्याकुल था ।
वह जो वस्त्र पहनकर अपने घर से निकला था, उसे वह बड़े जतन के साथ संजोकर, इत्मीनान पूर्वक टेबल पर रखते हुए, एक दीर्घ सांस लेकर अपने मन ही मन बड़बड़ाया था कि चलते समय हम इसे पहन लेंगे ।
चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार, अपने कमरे में चहल कदमी करते हुए किसी बच्चे की तरह रोए जा रहे थे ।
उन्हें विशेष रूप से उन शब्दों को सुनकर आघात पहुंचा था, जो शब्द वे लल्ला को मुंह से सुने थे, वे शब्द नहीं बल्कि शब्दों के रूप में किसी काल गरल के समान थे ।
क्या मैं बाहरी हूं, क्या मैं लालची हूं, क्या मैं डकैत हूं, जो उनके घर को ही लूटने आया हूं ।
उन्हें ऐसा लगा जैसे कि यह शब्द, किसी हिंसक नर प्राणी ने, बड़ी बेरहमी के साथ कांच के उन टुकड़ों को पिघला पिघला कर उन्हें निर्दयता पूर्वक पिला दिया हो ।
चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार दोनों आंखों में आंसुओं के सैलाब उम्र पड़े थे ।
वे आत्मग्लानि में भरे हुए अपने सोफे पर जाकर धम्म से किसी कटे हुए वृक्ष की भांति गिर पड़े थे कि तभी उन्हें अतीत की कुछ सचित्र घटनाएं याद आने लगी थी ।
उस दिन मोना मैम अपने कमरे में अकेली थी, रवि सर किसी काम से बाहर गए हुए थे ।
वह अच्छा अवसर देखते हुए, चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार को अपने कमरे में बुलवाई थी । चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार वहां पहुंचते ही सोफे पर जाकर धम्म से बैठ गए थे, मोना मैम श्रृंगार रस में डूबी हुई, बड़ी अदायगी के साथ इठलाती इतराती हुई मदहोशी के आलम में डूबी, हंसती खिलखिलाती चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार के बगल में जाकर सोफे पर बैठ गई । उसके तन बदन में गुलाबी इत्रों की महक थी ।
वह देखते ही देखते चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार के वज्र वाहन जैसे कठोर, एवं बलिष्ठ भुजाओं की हथेलियों को , अपने सुकोमल हथेलियां में लेती हुई बड़े प्यार से उनके ऊपर लहराती बल खाती हुई बोली थी ।
सर, आपकी ये हथेलियां कितनी सुंदर है, कितनी प्यारी है । ये लंबी लंबी उंगलियां, चौड़ी चौड़ी हथेलियां, जैसे कि सौंदर्यता की सारी वादियां अपने आप में समेटे हुए हों ।
सर, मेरा जी कहता है कि मैं इन हथेलियां को अपने होठों से चूम लूं
किंतु क्या करूं, ऐसा अधिकार तो आपने मुझे दिए ही नहीं है, जो अधिकार हमारे ऊपर आप का था , वह सारा का सारा अधिकार, मेरे सर जी को दे दिए ।
इतना कहते हुए मोना मैम, चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार के और निकट सरकते हुए, उन्हें अपनी दोनों बाहों का हार पहनाने की कोशिश की कि तभी चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार,अपने स्थान से उठकर खड़े होते हुए बड़े अदब के साथ बोले ।
भाभी, भाभी मां, ये आप क्या बोल रही हैं, मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आ रहा ।
सर, आश्चर्य है कि अभी तक आपके समझ में कुछ भी नहीं आया । वैसे आप यहां से उठकर इतनी दूर, वहां जाकर क्यों खड़े हो गए, क्या मैं इतनी अच्छी नहीं, या मेरे बोल बचन इतने प्यारे नहीं । सर यदि सच पूछा जाए तो मैं अभी इतनी बूढ़ी नहीं हूं कि आप बार-बार अपनी मां होने का संबोधन दें ।
मोना मैम की बातें सुनकर चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार को एक जोरदार झटका लगा, किंतु वे अपने आप को नियंत्रित करते हुए बोले ।ल
भाभी, इंसान की कद छोटे बड़े हो सकते हैं किंतु पद या रिश्ते कभी भी छोटे बड़े नहीं हो सकते रिश्ते रिश्ते होते हैं कद कद होते हैं । रिश्ते अपने अपने स्थान पर जिन-जिन नामों से जुड़े होते हैं, वे उसी नाम और स्थान से पहचाने जाते हैं, एवं सुनने और देखने में भी अच्छे लगते हैं । हां भाभी, इस मानव समाज में जब भी कभी किसी के प्रति,किसी से कोई रिश्ते बदले हैं, तब सत्य और धर्म दोनों को ही बड़ी शर्मिंदगी हुई है, रिश्ते तो रिश्ते होते हैं इन्हें बदलने में पल भर का भी समय नहीं लगता । इसीलिए इन्हें बहुत ही संभाल कर दुनिया की नजरों से बचा बचा कर, बड़े ही जतन योग के साथ संजो संजो कर रखा जाता है ।
त्याग समर्पण आस्था और निष्ठा का पोषण ही हर एक रिश्तो के जीवन का मूल केंद्र बिंदु होता है । वैसे भाभी, यदि मां जैसे पवित्र रिश्तो से आपको इतना ही परहेज है तो मैं आपको मां कभी भी नहीं कहूंगा, और हां एक बात और, आज से और अभी से ही हमें सर कभी भी मत कहिएगा, क्योंकि मैं आपके घर का एक अदना सा सिपाही हूं, प्रहरी हूं आपके घर का, अतः एक प्रहरी को, मलिक के मुंह से सर सर का संबोधन सुनना, सदा ही किसी नरक यात्रा से कम नहीं लगता । इसलिए अब आप हमें हमारे नाम से ही बुलाया करें, आप सभी के मुंह से हम अपने नाम को सुन सुन कर, हमें बहुत ही अच्छा लगेगा । वैसे सर हमें हमेशा ही बेटा और भाई कहते आए हैं, बस इसी रिश्ते से हम आपको अपनी भाभी मां मानते थे चलिए कोई बात नहीं ।
चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार ने बड़ी ही सहजता और शालीनता से मोना मैम के सामने प्रस्तुत हुए थे ।
मोना मैम चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार के मुंह से ऐसी वाणी सुनते ही वे अति प्रसन्न होते हुए बोली ।
ओके बाबा ओके, कोई बात नहीं । अब हम आपको कभी भी सर सर नहीं कहेंगे, कहेंगे तो सिर्फ विजय कुमार, किंतु आप भी अब हमें कभी भी मां मां नहीं कहेंगे, वैसे आप हमारे नजदीक से उठकर वहां इतनी दूर जाकर क्यों खड़े हो गए, क्या मैं आपको अच्छी नहीं लगती, यदि मैं अच्छी लगती हूं तो क्या आप वहां से आकर हमारे पास बैठ नहीं सकते ।
नहीं भाभी, हमें ऐसे ही ठीक है जो कुछ भी आप कहना चाहती हों आप वहीं से कहें हम सब सुन रहें है ।
चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार ने, मोना मैम से बड़े ही सपाट लहजे में बोले थे ।
तब मोना मैम ने अपने मधुर अधरों से रस टपकाती हुई बोली थी ।
हां विजय बाबू हम आपसे कुछ कहना चाहती हूं । जब आप हमारे सर जी के साथ पहली बार उनके कारपेंटर उद्योग आए थे, तब हम आपको उसी समय अपने ऑफिस के बाहर खड़ी होकर, यूं ही अपलक एकटक निहारती रह गई थी । मेरी ये दोनों चंचल निगाहें, आपके चेहरे से हट ही नहीं रही थी । उस समय मैं ईश्वर को धन्यवाद करने लगी थी कि हे प्रभु, इतने सुंदर सजीले नवयुवक को शायद ही आप इस संसार में कोई दूसरा बनाए होंगे, तभी हमने ईश्वर से प्रार्थना किया था, कि हे पालनहार, यदि कभी भी भविष्य में ऐसे नवयुवक को, जीवन साथी के रूप में हमारे लिए भेजें तो मैं उसे इनकार नहीं कर सकती, बल्कि मैं उनके लिए अपना विधवा पन भी भंग करके, उनके साथ परिणय बंधन में बंधने के लिए झट से तैयार हो जाऊंगी । हे विजय बाबू, उसी समय से मैं ऐसा सोच कर, आपको मन ही मन बहुत प्यार करने लगी थी । आपके मासूम ख्यालों में, मैं दिन-रात डूबने उतराने लगी थी । सदा ही आठों प्रहर बेचैन रहने लगी थी । किंतु आपने मुझ बावरिया की सारी मोहब्बतें, सारी चाहते, सारे इंतजार, बस एक पल में ही मुझ जैसी अभागिन को, एक सीधी साधी गाय समझकर, मेरे सर जी के हाथों बड़े आराम से सौंप दिए, जिसे मैं चाह करके भी आपसे इस परिणय बंधन का विरोध नहीं कर सकती थी ।
आपको इसका विरोध करना चाहिए था, आपको अपनी चाहत का खुलासा करना चाहिए था किंतु आपने अपने इस अनुराग को छुपा कर रखा, इसमें आपका दोष है । वैसे भी हमारी लाइफ शादीशूदा थी, हमारे ख्याल से सर जी के हाथों आपको सौंप कर हमने कोई गलती नहीं किया है । ईश्वर जो कुछ भी करता है अच्छा ही करता है ।
चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार, एक लंबी सांस लेते हुए पुनः बोले थे ।
जो होना था भाभी जी, वह सब हो चुका है । अतः अब आप अपने गृहस्थ आश्रम की एक जिम्मेदार एवं एक धर्मज्ञ परायण स्त्री बन चुकी हैं । किसी के जीवन की जीवन संगनी बन चुकी है, इसलिए आप अपने चंचल मन को नियंत्रित करने की चेष्टा करें । समझाना सरल होता है विजय बाबू, किंतु उसे निभाना बड़ा ही मुश्किल । वैसे अभी कुछ बिगड़ा नहीं है यदि आप चाहे तो हमें बहुत कुछ मिल सकता है ।
मोना मैम अपने शब्दों में मिश्री घोलते हुए अपनी मधुर वाणी के साथ नीति कुटिलता का प्रयोग करती हुई बोली थी,
दरअसल आप हमारे हस्बैंड सर जी के असली खून तो है नहीं, बस मानवता और प्रेम के बंधन में, आप दोनों राह चलते अकस्मात बंध गए थे । इसलिए हम चाहते हैं कि जब तक सर जी हमारे साथ हैं, तब तक हम दोनों लुक छुपकर अपने प्रेम परिणय का आनंद उठाते रहेंगे । उसके बाद सर जी जब कभी दिवंगत हो जाएंगे तब हम दोनों कोर्ट में चलकर शादी करेंगे ।
भाभी….!
चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार इतना सुनते ही बड़ी तेजी के साथ गुस्से में चीख से पड़े थे ।
भाभी, तुम कैसी हो गई हो तुम्हारे अंदर ऐसी कौन सी औरत बैठ गई है, जो अपने ही हवस के लालच में गूंगी बहरी और अंधी होती जा रही है । न उसे किसी रिश्तो का ख्याल है और न ही किसी रिश्तो की पहचान है । सिर्फ और सिर्फ अपने ही हवस में अंधी हो चुकी है हम तो आपके सुंदर से मन को, एक पवित्र सुमन समझ कर अपने भैया राम जी के लिए, आपका वरण किए थे किंतु परिणय बंधन के बाद आज हम आपको जिस रूप में देख रहे हैं, वह कितना घृणित और भयानक है ।
भाभी, हमारे राम जैसे भैया के लिए इस युग में यदि आप एक सीता नहीं बन सकती तो न सही, किन्तु आप एक साधारण सी ग्रहणी तो बन सकती हो । हे भगवान, इस क्षण भंगुर संसार में आप एक क्षणिक सुख की प्राप्ति के लिए अपने जीवन धन स्वामी को ही दिवंगत होने के लिए अभी से ही पर पुरुषों की बाहों में झूलने के सपने देखने लगी है । एक बार विधवा हुई, आंखें नहीं खुली, अब दूसरी बार भी विधवा होने के लिए सपने संजोने लगी हैं । धिक्कार है आपको एक स्त्री होने का, लानत है आपके सारे जीवन को, आपको तो यूं ही चुल्लू भर पानी में डूब कर मर जाना चाहिए था । याद रहे यदि आपने अपने स्वयं को एक भारतीय नारी के परिवेश में नहीं ढाला तो,मैं जीवन भर आपसे कभी भी बातें नहीं करूंगा ।
इतना कहते ही चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार जैसे ही मुड़कर जाने को हुए, कि तभी मोना मैम भी आपे से बाहर होती हुई चिल्ला कर बोली ।
विजय, तुम मेरा प्रेम प्रसंग ठुकरा कर जा रहे हो याद रहे, भगवान इसके लिए तुम्हें कभी भी माफ नहीं करेंगे ।
किंतु याद रहे, मेरी यह पवित्र भावना और मेरा यह परिणय प्रस्ताव, मेरे सर जी को कभी भी पता नहीं चलना चाहिए, अन्यथा ऐसे दुस्साहस का परिणाम, आने वाले भविष्य में अच्छे नहीं हों सकते । अब आप यहां से अपने ऑफिस को पूरे आनंद और शौक के साथ जा सकते हैं ।
इतना कहते ही वह रूहांसी सी हो उठी थी, और उसका गला भर आया था ।
इससे पहले कि चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार कुछ कहते हैं, वह पलक झपकते ही दौड़कर अपने कमरे में चली गई थी, और फिर अंदर से दरवाजे को बंद करके, बिस्तर पर पहुंचते ही किसी कटे हुए वृक्ष की तरह गिरकर बिन जल मछली की भांति तड़पने लगी थी ।
जिस ढंग से मोना मैम दरवाजे को अंदर से बंद की थी, उससे चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार को काफी घबराहट हो गई थी । उनके मन में अनायास ही यह प्रश्न उठने लगे थे कि कहीं मोना भाभी अपने आपको दंड देने के लिए कुछ गलत फैसले न ले ले, या फिर सुसाइड न कर ले । वे अपने अतीत के गहरे सागर में पूरी तरह से डूब चुके थे ।
समय के प्रवाह ने मोना मैम को धीरे-धीरे, चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार के प्रति अनुरागासक्त बनाकर रख दिया था कि तभी अतीत से एक अश्लील परिदृश्य पुनः उभरा । लल्ला की उम्र भी अब लगभग पांच वर्ष की हो चुकी थी । होली का त्यौहार था, सारा देश इस रंग-बिरंगे पर्व को, बड़े ही धूमधाम के साथ मना रहा था । होली के इस पावन अवसर पर, चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार, रवि सर से मिलने के लिए एवं मोना भाभी से भी मिलने के लिए आकुल व्याकुल अवस्था में भावुकता बस उनके कमरे पर पहुंच गए । रवि सर, चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार को देखते ही अपने दोनों हाथों को फैला कर उनकी तरफ दौड़ पड़े । चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार भी अपने सर की ऐसी प्रेम वात्सलता को देखकर, अपने दोनों हाथों को फैलाए हुए, रवि सर के निकट पहुंचकर, उन्हें अपनी बाहों में भरते हुए छाती से लगा लिए । और फिर देखते ही देखते उन दोनों के नैन आंसू, किसी झरनों की भांति झर झर कर झरने लगे थे । कुछ समय बाद जब वे दोनों एक दूसरे से अलग हुए, तब चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार रवि सर के चरणों में झुकते हुए लोटपोट हो गए थे ।
रवि सर , उन्हें अपने दोनों हाथों से उठाते हुए एक बार फिर, चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार को अपनी छाती से लगा लिए थे । रवि सर, चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार को एक ही सांस में ढेरों आशीर्वाद एवं शुभकामनाएं दे चुके थे । फिर वहां से चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार दौड़ते हुए मोना मैम के कमरे की तरफ लपके थे ।
मोना मैम उन्हें देखते ही खुशी-खुशी दौड़ पड़ी थी । चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार जैसे ही अपनी झोली से अबीर निकालकर मोना मैम की माथे पर लगाने के लिए हाथ आगे बढ़ाएं, वैसे ही मोना मैम ने सिंदूर की एक डिबिया निकाल कर,उसका ढक्कन खोलने हुए, चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार के कंधों पर हाथ रखते हुए बड़े प्यार से बोली ।
हम अपने जीवन काल में अपने सर से पहले,, आपको ही अपना सर्वश्रेष्ठ पति मानी हूं । हमारी लाइफ में तो आप हमारे सर जी से पहले आए हैं, इसीलिए हम आपको ही अपना भगवान मानती हूं । अतः आप एक चुटकी भर सिंदूर इस डिबिया से निकाल कर हमारी मांग भर दे जिससे कि मैं जीवन भर आपका नाम की सुहागन बनी रहूं,और साथ ही साथ मेरी आत्मा को आपकी धर्मपत्नी बनने का गौरव सुख सदा ही जीवन पर्यंत मिलता रहे ।
नहीं भाभी नहीं, ऐसा कहते हुए आपकी जिह्वा लड़खड़ाई क्यों नहीं, पति धर्म के रिश्ते को निभाने से पहले, तन मन में आए हुए प्रदूषण के विषय में सोची क्यों नहीं । भाभी, स्त्रियां सुहागिन बड़े सौभाग्य से होती हैं, सौभाग्य ही उनका पति होता है, और पति का मन वचन और कर्म से साथ निभाना ही सबसे बड़ा धर्म होता है, अतः अपने पति से कभी भी विमुख नहीं होना चाहिए ।
तभी मोना मैम आपे से बाहर होते हुए चीख सी पड़ी । चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार का गिरेबान पकड़ कर बड़ी तेजी के साथ उन्हें झिंझोड़ती हुई चिल्लाई ।
चले जाओ यहां से, कहीं मेरे फुंफकार के जहर से तुम्हारी मौत ना हो जाए । अपना उपदेश अपने पास रखो विजय बाबू, छोटी मुंह बड़ी बात शोभा नहीं देती, जाओ चले जाओ अभी इसी छन चले जा, अब मैं तुमसे बात नहीं करना चाहती ।
तभी अचानक दरवाजे पर जोरदार दस्तक होने लगी, चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार की तंद्रा अकस्मात ही उसके अतीत से भंग हो उठी । चितरंजन दास उर्फ विजय कुमार अपनी दोनों आंखों को मलते हुए जैसे ही दरवाजा खोलें वे अवाक से हो उठे, उनके मुंह से बोल तक नहीं फूटे, उनका मुंह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया ।
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