करेंसी एक महायुद्ध | currency ek mahayudh| rupaya vs dollar

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"रुपया vs डॉलर" – भाग 1: जब रुपया था king 🦁!
(यह कहानी ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित है, लेकिन इसमें कुछ कल्पनाएँ जोड़ी गई हैं। उद्देश्य केवल जानकारी और मनोरंजन है।)
साल 1947। लाल किले से तिरंगा लहराया गया। आज़ाद भारत की पहली सुबह थी। लोगों की आँखों में सपने थे, और जेब में रुपया। तब भारतीय रुपया किसी से कमजोर नहीं था—1 रुपया = 1 अमेरिकी डॉलर।
उस दौर में भारत की अपनी शान थी। कोई विदेशी कर्ज नहीं था, और दुनिया में हमारी अर्थव्यवस्था की अपनी अलग पहचान थी। लेकिन फिर ऐसा क्या हुआ कि आज रुपया डॉलर के सामने घुटने टेक चुका है? क्या यह सिर्फ आर्थिक उतार-चढ़ाव की कहानी है, या इसके पीछे कोई बड़ा षड्यंत्र था?
एक मजबूत शुरुआत
आजादी के समय भारत के पास मजबूत सोने का भंडार था। हमारा कृषि और हथकरघा उद्योग काफी ताकतवर था। लेकिन देश को आगे बढ़ाने के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर, उद्योग, और शिक्षा में निवेश करना जरूरी था। सरकार ने विकास के लिए योजनाएँ बनाईं, और इसके लिए बाहरी देशों से मदद लेने की जरूरत पड़ी।
यही पहला मोड़ था जहाँ भारत ने विदेशी कर्ज लेना शुरू किया। 1951 में, भारत ने पहली बार अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) और विश्व बैंक से कर्ज लिया। यह वह समय था जब हमारी अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे विदेशी प्रभाव में आने लगी।
एक चाल, जो भारत को जकड़ने लगी
विदेशी कर्ज के साथ एक नई समस्या आई—डॉलर की जरूरत। भारत को कर्ज चुकाने के लिए डॉलर चाहिए था, और इसके लिए हमें ज्यादा से ज्यादा निर्यात करना पड़ता। लेकिन भारत तब तक एक आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था की राह पर था, जहाँ घरेलू उत्पादन पर जोर था।
दूसरी ओर, अमेरिका और ब्रिटेन भारत की स्थिति को समझ चुके थे। वे चाहते थे कि भारत की अर्थव्यवस्था उनके हिसाब से चले। यही कारण था कि 1960 के दशक में, भारत पर धीरे-धीरे मुद्रा अवमूल्यन (devaluation) का दबाव बनाया जाने लगा।
सबसे बड़ा झटका—1971
1971 में अमेरिका ने अचानक डॉलर को गोल्ड स्टैंडर्ड से अलग कर दिया। इसका मतलब था कि अब डॉलर की कीमत सोने से नहीं, बल्कि सिर्फ अमेरिकी सरकार के फैसलों से तय होगी। इससे पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था हिल गई, और भारत भी इस झटके से बच नहीं पाया।
अब भारत को अपनी मुद्रा को बचाने के लिए और ज्यादा डॉलर जुटाने की जरूरत थी। विदेशी निवेशकों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों का दबाव बढ़ गया। धीरे-धीरे रुपये का अवमूल्यन किया गया, और वह डॉलर के मुकाबले कमजोर होता चला गया।
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अब आगे क्या?
भारत, जो कभी आत्मनिर्भर था, अब एक ऐसे चक्रव्यूह में फँस चुका था जहाँ से निकलना आसान नहीं था। क्या यह सिर्फ संयोग था, या भारत को जानबूझकर इस स्थिति में धकेला गया?
(अगले भाग में: जब डॉलर ने पूरी दुनिया पर राज करना शुरू किया, और रुपया विदेशी ताकतों के जाल में और गहरा फँस गया!)
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